बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

गंगा बहती हो क्यूं ?

परिवर्तन प्रकृति का नियम है , इस को ढाल बना कर कुछ भी कर लेने की हमे आदत सी हो गई है |
पहले  से अब हालत बदल गए है मनुष्य ने कई सालो से बुरी खबरो : ये हुआ ,ये  धमाका आदि सुन पढ़
इनके खिलाफ भी प्रतिरोधक क्षमता  (एंटी बाडीज) विकसित कर ली है अब उस पर इनका कोई असर नहीं पड़ता जब तक उसका कोई अपना अहित ना हुआ हो उसे ना दर्द है ना ही परवाह परन्तु वह बेचारे लोग जो अभी तक इनके विरुद्ध प्रतिरोध विकसित नहीं कर पाए आज भी इन्हें पढ़ सिहर जाते है किन्तु वे दो घड़ी के लिए सोचने के आलावा कुछ नहीं कर पाते |सब अपनी जगह संतुष्ट नहीं भी है तो क्या करे कई सौ साल की गुलामी और विरासत में मिली आज़ादी जिसके लिए हमने कोई संघर्ष नहीं किया हमे ऐसे मिल गई जैसे "अंधे के हाथ बटेर " अंग्रेज जाते जाते हमारी आंखे फोड़ गए १९४७ का ग़दर उसका ही रक्त प्रवाह था |
हम कहने को संपन्न तो हो गये वो भी केवल कुछ ही जगह परन्तु उसकी कीमत हमे अपनी रीढ़ की हड्डी गिरवी रख चुकानी पड़ी |
मर्म समझने के बाद आप जान ले की आमनुष्यों की ये व्यवस्था बहुत अद्भूत है |
हाँ परन्तु उनकी इस व्यवस्था में आज भी कुछ माँ भारती के सच्चे सपूत पैदा हो जाते है , जो विश्व में शांति एवं एकता के लिए भारत के नेतृत्व की आवश्यकता को पहचानते है एवं  भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह लगे रहते है , पुण्यभूमि भारत की यह दुर्दशा देख वे कहने के आलावा करने को प्राथमिकता देते है एवं जीवन परियन्त वो ही कार्य करते है जिसके लिए उनका जन्म हुआ था माँ भारती की सेवा |





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